अयोध्या में जिनका हुआ जन्म, किया जिन्होंने धर्म का काम।
मात पिता का वचन निभाने, छोड़ दिया वो अवध धाम।
कर्म ऐसे की शीश झुके, बन गए वो पवित्रता का नाम।
कहलाए जो सिया का प्रेम, कहलाए मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम।।
श्री रामचरितमानस भगवान गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा 16वीं शताब्दी में रचित एक महाकाव्य ग्रंथ है। हिंदू समाज और हिंदुत्व की पराकाष्ठा माने गए इस ग्रंथ को धर्म का द्योतक भी कहा जाता है। हर सनातन धर्मी के घर के पूजा स्थल में श्री रामचरितमानस की चौपाई का अपना एक अनूठा स्थान है।
कर्मफल यदाचरित कल्याणि। शुभं वा यदि वाऽशुभम्।
तदेव लभते भद्रे। कर्त्ता कर्मजमात्मनः।।
स्रोत : वाल्मीकि रामायण।
भावार्थ: मनुष्य जैसा भी कर्म करता है, अच्छा या बुरा, उसे वैसा ही फल मिलता है। कर्त्ता को अपने कर्म का फल अवश्य भोगना पड़ता है।
श्री रामचरितमानस की चौपाई जीवन और संघर्ष के बीच तय करने वाले मुक्ति मार्ग को प्रशस्त करती है। इसीलिए इस महाकाव्य का भारतीय संस्कृति में बड़ा महत्वपूर्ण योगदान माना गया है। कर्म से धर्म तक की यात्रा का समावेश जिसके एक चौपाई में अनेकों उदाहरण प्रस्तुत हैं, वह श्री रामचरितमानस है।

श्री रामचरितमानस
श्री रामचरितमानस अवधी भाषा में लिखी एक आलौकिक और मोहक काव्य संग्रह है जो हमें जीवन के सर्वश्रेष्ठ गुणों को अपनाना सिखाती है। इस ग्रंथ को अवधी साहित्य की सबसे महान एवं अद्भुत कृति मानी गई है। इस महाकाव्य में सात काण्ड हैं जो उस समय के सभी प्रसंगों को प्रस्तुत करती हैं। 10902 श्लोकों से सुसज्जित, भारत में इस महाकाव्य का अलग महत्व और स्थान है। इसे तुलसी रामायण भी कहा जाता है।
गोस्वामी जी ने स्वयं, बाल कांड के एक अध्याय में, लिखा है की उन्होंने श्री रामचरितमानस की चौपाई की रचना श्री राम के जन्म स्थल अयोध्या में लिखी है। इस महा ग्रंथ की रचना 1574 ईस्वी के विक्रम संवत को रामनवमी के मंगलवार को आरंभ की गई थी। पूरे 2 वर्ष, 4 महीने और 26 दिन के पश्चात, 1576 ईस्वी के मार्गशीश के शुक्ल पक्ष में श्री राम के विवाह के दिन यह ग्रंथ संपूर्ण हुआ। रामचरितमानस में रघुनंदन का बड़ा ही निर्मल, कोमल एवं अनन्य चरित्र का वर्णन किया गया है। महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित संस्कृत वर्णित रामायण को रामचरितमानस का आधार माना जाता है। परंतु दोनों काव्यों में शाब्दिक अंतर है।
श्री रामचरितमानस की चौपाई में चित्रित कुछ गुणों का उल्लेख
श्री रामचरितमानस की चौपाई न केवल हमें जीवन, कर्म और समर्पण का भाव सिखाती है, अपितु हमारे भारतीय संस्कृति के सर्वश्रेष्ठ गुणों को अपने अंदर समाहित करने का आधार भी बताती है। श्री रामचरितमानस की चौपाई में जिस प्रकार भारतीय संस्कृति का उल्लेख हुआ है वो शायद ही किसी और ग्रंथ में हुआ हो क्योंकि इसमें केवल श्री राम से ही नहीं बल्कि अन्य पत्रों से भी हमें सीख मिलती है।
आइए कुछ प्रमुख गुणों के रूप रंग को साझा करें:
माता पिता की आज्ञा पालन:
हमारे धर्म में माता पिता को भगवान से भी सर्वोच्च स्थान दिया गया है। मानस में श्री राम ने जिस प्रकार अपने माता पिता की आज्ञा को शिरोधार्य रखा वो आदरणीय था। उन्होंने बिना कोई प्रश्न किए वंगमन की आज्ञा का पालन किया। कितने भी दुख हो किंतु माता पिता की आज्ञा को मान देना ही हिंदू धर्म की संस्कृति है। इसे ही हमारी पहचान भी माना गया है।
सुनु जननी सोइ सुतु बड़भागी। जो पितु मातु बचन अनुरागी।
तनय मातु पितु तोषनिहारा। दुर्लभ जननि सकल संसारा।
स्रोत: श्री रामचरितमानस।
भावार्थ: हे जननी, पुत्र वो बड़े भागों वाला होता है, जो अपने माता पिता के वचनों का पालन करता है। उन वचनों को शिरोधार्य रखने वाला पुत्र, हे जननी, उनके मान के लिए त्याग करने वाला पुत्र सारे संसार में दुर्लभ है।
गुरुजन की आज्ञा शिरोधार्य है:
माता पिता के बाद यदि किसी व्यक्ति के लिए कोई सर्वोच्च होता हैं तो वो होते हैं उसके गुरुजन। गुरुजन न केवल अपने शिष्यों को ज्ञान देते हैं बल्कि उनका चरित्र निर्माण भी करते हैं। श्री रामचरितमानस के हर पात्र ने अपने गुरु की आज्ञा को सम्मान दिया है। चाहें वो श्री राम हो या दशानन रावण, सभी ने अपने गुरु को श्रेष्ठ माना था। गुरु वशिष्ठ, गुरु विश्वामित्र या गुरु पुलस्त्य ऋषि सभी ने अपने शिष्यों का हर मूल पर साथ दिया।
तेउ दोउ बंधु प्रेम जनु जीते। गुर पद कमल पलोटत प्रीते।।
बार बार मुनि अग्या दीन्ही। रघुबर जाइ सयन तब कीन्ही।।
स्रोत: श्री रामचरितमानस
भावार्थ:- दोनों भाई (राम और लक्ष्मण) मानो प्रेम से जीवन बिताते हैं और प्रेम पूर्वक अपने गुरुजी के चरण कमलों को दबा रहे हैं। मुनि (गुरुजी) के बार-बार आज्ञा देने के बाद, तब श्री रघुनाथ जी ने जाकर शयन (निद्रा ग्रहण) किया (गुरु का ध्यान रखना शिष्य का कर्तव्य होता है)।

पत्नी व्रत धर्म:
हिंदू धर्म में पत्नी को अर्धांगिनी कहा जाता है। अर्धांगिनी अर्थात् शरीर के आधी भाग में रहने वाली। पत्नी प्रेम, समर्पण, त्याग और विश्वास की मूर्ति मानी जाती है। मानस में सीता हो या उर्मिला, मंदोदरी हो या कौशल्या- सुमित्रा- कैकेयी, सभी ने अपना पत्नी व्रत धर्म निभाया। एक स्त्री अपने पति के साथ कहीं भी सुख प्राप्त कर सकती है, इसका उदाहरण स्वयं सीता ने दिया। अपने पति के लिए उनके शारीरिक क्रियाओं को स्वयं में लेकर 14 वर्षों तक निद्रा में रहीं उर्मिला ने भी अनेकों उदाहरण प्रस्तुत किए। मंदोदरी, रावण की पत्नी, जिसने गलत होते हुए भी अपने पति का साथ नहीं छोड़ा, वे भी पति व्रता पत्नी का उदाहरण प्रस्तुत करती हैं।
जग पतिब्रता चारि बिधि अहहीं। बेद पुरान संत सब कहहीं।।
उत्तम के अस बस मन माहीं। सपनेहुँ आन पुरुष जग नाहीं।।
स्रोत: श्री रामचरितमानस।
भावार्थ: (जब माता सीता अनसूया जी से मिलती हैं और उन्हें पत्नी व्रत धर्म का महत्व समझाते कहती हैं) समस्त जगत में चार प्रकार की पति व्रताएं हैं। वेद, पुराण एवं संत कहते हैं कि उत्तम श्रेणी पतिव्रता के मन में यह भाव रहता है की उसका पति सर्वोपरि है। कोई अन्य पुरुष तो उसके स्वप्न में भी नहीं आता है।
भ्रातृ प्रेम एवं समर्पण:
श्री रामचरितमानस की चौपाई का हर पाठ राम-लक्ष्मण के भ्रातृ प्रेम की गाथा सुनाता है। लक्ष्मण जी ने भ्रातृ प्रेम की पराकाष्ठा को छुआ है। अपने भाई भाभी के लिए अपना सुख, अपनी पत्नी, अपने परिवार को छोड़ 14 वर्षों तक वन साथ में जाने का निर्णय केवल एक भाई ही कर सकता है। अपने भैया भाभी का रक्षण करने हेतु लक्ष्मण जी ने 14 वर्षों के लिए अपने शारीरिक क्रियाओं को त्याग दिया।
कुंभकर्ण, जिसे ज्ञात था की श्री राम कौन हैं, ने फिर भी अपने भाई के लिए युद्ध किया और मुक्ति प्राप्त की। भरत जी भी श्री राम के वन गमन के बाद राज पाठ छोड़ एक कुटिया में अपना जीवन व्यतीत करने लगे। लव -कुश भी भ्रातृ प्रेम का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं।
कहत सप्रेम नाइ महि माथा। भरत प्रनाम करत रघुनाथा।।
उठे रामु सुनि पेम अधीरा। कहुँ पट कहुँ निषंग धनु तीर।।
स्रोत: श्री रामचरितमानस
भावार्थ: लक्ष्मणजी प्रेम और आदर सहित मस्तक झुकाकर कहते हैं- हे रघुनाथ जी! भरतजी प्रणाम कर रहे हैं। यह सुनते ही श्री राम प्रेम में अधीर होकर उठे। कहीं वस्त्र गिरा तो कहीं तरकस, कहीं धनुष तो कहीं बाण (भ्रातृ प्रेम में हम सब कुछ भूल जाते हैं)।

राज धर्म सर्वोपरि:
श्री रामचरितमानस में हर राजा ने अपनी प्रजा के हित हेतु कार्य किया। राजा जनक से राजा दशरथ तक, राजा राम हो या राजा रावण, सुग्रीव हो या बाली, सभी के लिए उनकी प्रजा उनका परिवार थी। राज धर्म को भी हिंदू धर्म में सर्वोपरि माना जाता है। प्रजा भी अपने राजा का उतना ही सम्मान और आदर करती थी।
सुर रंजन भंजन महि भारा। जौं भगवंत लीन्ह अवतारा॥
तौ मैं जाइ बैरु हठि करऊँ। प्रभु सर प्रान तजें भव तरऊँ॥
स्रोत: श्री रामचरितमानस।
भावार्थ: रावण ने विचार किया कि देवताओं को आनंद देने वाले और पृथ्वी का भार हरण करने वाले भगवान ने ही यदि अवतार लिया है तो वे जाकर उनसे हठपूर्वक बैर करेंगे और प्रभु के बाण से प्राण छोड़कर भवसागर से तर जायेंगे और साथ ही उनकी पूरी राक्षसी प्रजा भी मुक्ति पा लेगी।
मर्यादा:
श्री राम को हम मर्यादा पुरुषोत्तम कहते हैं। उन्होंने सदैव अपने परिवार और प्रजा के लिए त्याग किए हैं। फिर चाहे वो वनवास हो या माता सीता की अग्निपरीक्षा। उन्होंने सभी कार्य अपने एक मर्यादा में रह कर किए। मर्यादित पुरुष की अनेकों विशेषताओं का उल्लेख है श्री रामचरितमानस की चौपाई।
श्री राम ने माता सीता के अलावा कभी किसी स्त्री को नहीं माना। माता सीता यदि पति व्रत धर्म की सर्वोच्च उदाहरण हैं हो श्री राम भी पत्नी व्रत धर्म के सर्वोच्च पालक माने जाते हैं।
सद्गुणों का आलौकिक समावेश:
श्री रामचरितमानस की चौपाई को सद्गुणों का एक आलौकिक संगम माना जाता है। त्याग, प्रेम, तपस्या, करुणा और भक्ति जैसे कई अन्य गुणों की चर्चा इस महाकाव्य में हुई है। संत एवं ज्ञानी महात्मा कहते है की जिन्होंने भी इस महाकाव्य को पूरा पढ़ा हो, उसका उद्धार और आधार दोनों ही श्री राम के हाथों में होता है। श्री राम का राजसुख त्याग, सीता का पति प्रेम, लक्ष्मण की 14 वर्षों की तपस्या, सब सद्गुणों की पराकाष्ठा दर्शाते हैं।
सकल सुमंगल दायक, रघुनायक गुण गान।
सादर सुनहिं ते तरही भव, सिंधु बिना जल जान।
स्रोत: श्री रामचरितमानस।
भावार्थ: रघुकुल नायक श्री राम का गुणगान अत्यंत मंगलकारी है और जो नर इसे आदर के साथ सुनते हैं, इस संसार रूपी सागर के पार उतर जाते हैं अर्थात् उन्हें मोक्ष की प्राप्ति होती है।
अवश्य देखिए: भगवान परशुराम की कहानी (अंग्रेज़ी में)।

निष्कर्ष
श्री रामचरितमानस एक ऐसा काव्य संग्रह है जो हर भारतीय के घर के साथ साथ हृदय में भी रहता है। इसकी संस्कृति, रीति रिवाज़, मूल आधार, मान्यता हमारे जीवन में हर पल गतिमान है। श्री रामचरितमानस की चौपाई को जीवनदायिनी शक्ति श्रोत भी कहा जाता है।
हरि अनंत हरि कथा अनंता। कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता।।
रामचंद्र के चरित सुहाए। कलप कोटि लगि जाहिं न गाए।।
भावार्थ: मेरे हरि अर्थात् श्री राम अनंत हैं, और अनंत है उनकी महान गाथा जो समग्र विश्व को सीख देती है। कई संत इसे अनेक प्रकार से कहते और सुनते हैं। रामचंद्र जी के अद्भुत चरित्र का वर्णन करोड़ों युगों में भी नहीं किया जा सकता।
श्री रामचरितमानस की चौपाई केवल सद्गुणों को ही नहीं बल्कि उन पर स्थित आधार एवं व्यवहार को भी उजागर करती है। आज लगभग हर घर में इसके भिन्न भिन्न खंडों के एवं चौपाइयों का पाठ होता है। उन शप्त खंडों का भावार्थ हमारे जीवन में कई जगह काम आता है। श्री रामचरितमानस की चौपाई का जैसा स्थान भारत में है वैसे ही पूरे विश्व में भी है। कई अन्य धर्म के लोग भी इसे पढ़ कर इससे सीख लेते हैं और अपने प्रश्नों के उत्तर प्राप्त करते हैं।
आखिर में कुछ स्वरचित पंक्तियों से अंत करता हूं –
धरती से हुआ जिनका जन्म, बनी जो जनक की दुलारी।
विदेह की वैदेही है वो, मिथिला की मैथिली राजकुमारी।
संस्कार हैं जिनके आभूषण और ज्ञान ही जीवन का आधार।
स्वतंत्र रखना माने जो विचार, राम बने जिनके जीवन का प्यार।।
अवश्य पढ़े : समय का महत्व।
लेखक से संपर्क करें : निखिल निवेदन वत्स
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